आल्हा ऊदल- बुंदेलखंड के वीर योद्धाओं की कहानी

आल्हा ऊदल- बुंदेलखंड के वीर योद्धाओं की कहानी

भारतीय इतिहास मे ऐसे अनेकों वीर एवम वीरांगनाओ की कथाएँ है जिन्हें सुनकर आज भी मन जोश से भर उठता है और अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्व की अनुभूति होती है।भले ही हमारी इतिहास की पाठ्यपुस्तकें इन कथाओं का वर्णन करते हुए सकुचाती हो परन्तु गाँव गाँव मे गाये जाने वाले लोकगीतों व लोककथाओं में आज भी इन वीरों को समुचित सम्मान मिलता है। ऐसी ही कथा है दो वीरों की जिन्होंने अपने पराक्रम से पृथ्वीराज जैसे पराक्रमी राजा को भी पराजित कर दिया था।कभी दिल्ली,कन्नौज एवम महोबा की रियासतों के केंद्र रहे एट थाना क्षेत्र के बैरागढ़ अकोढ़ी में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान एवम आल्हा-ऊदल की आखिरी लड़ाई हुई थी।ऐसा माना जाता है कि आल्हा को माँ शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था इसलिए पृथ्वीराज की सेनाओं को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा।

मेहर मध्यप्रदेश स्थित माँ शारदा मंदिर
मेहर मध्यप्रदेश स्थित माँ शारदा मंदिर

माँ शारदा के आदेश से आल्हा ने अपनी साग(हथियार) यही शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नही कर पाया है।ऐसी भी मान्यता है कि इस युद्ध के बाद अपने भाई ऊदल की मृत्यु के कारण व गोरखनाथ जी की प्रेरणा से आल्हा ने सन्यास ले लिया। ऐसी भी मान्यता है कि माँ शारदा ने आल्हा को अमर होने का वरदान दिया था।लोगो का मानना है कि महोबा में स्थित मां शारदा मंदिर में आज भी आल्हा माता की पूजा करने आते है।

कौन थे आल्हा ऊदल

आल्हा और ऊदल का नाम आल्ह सिंह व उदय सिंह था।इनके पिता का नाम बच्छराज सिंह था जो कि चंदेल राजवंश की सेना के प्रधान सेनापति थे। आल्हा ऊदल के वंश को लेकर इतिहासकारों का मत है कि इनके पिता बच्छराज सिंह ‘वनाफर’ कुल के थे जिसकी उत्तपत्ति वनाफर अहीरों से हुई थी। मध्यप्रदेश में अहीरों की दो शाखाएं प्रचलित है हवेलियां अहीर व वनाफर अहीर। वनों में रहने के कारण ही ये वनाफर अहीर कहलाये। बच्छराज सिंह का विवाह राजकुमारी देवल से हुआ था। माता शारदा के आशीर्वाद से ही आल्हा ऊदल के रूप में दो महावीर पुत्रो की प्राप्ति हुई।ऊदल आल्हा से 12 साल छोटे थे।

पृथ्वीराज चौहान से युद्ध

जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह खंड के नामक एक काव्य रचा था जिसमे इन दोनों वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।आल्हा ऊदल को युधिष्ठिर व भीम का अवतार माना जाता है।कहते है कि पृथ्वीराज चौहान से इनका अंतिम यूद्ध हुए था।पृथ्वीराज ने बुंदेलखंड को जीतने के उद्देश्य से ग्याहरवीं सदी में बुंदेलखंड के तत्कालीन राजा परमर्दिदेव(राजा परमाल) पर चढ़ाई की थी।उस समय चंदेलों की राजधानी महोबा थी।आल्हा ऊदल राजा परमाल के मंत्री के साथ साथ वीर योद्धा भी थे।
बैरागढ़ में अंतिम युद्ध हुआ जिसमें आल्हा ऊदल ने पृथ्वीराज को बुरी तरह से परास्त कर दिया। 

इस युद्ध में ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गए थे।उनकी मृत्यु का समाचार पाते ही आल्हा अकेले ही युद्धभूमि में कूद पड़े।उन्होंने दिल्ली की सेना में हाहाकार मचा दिया और पृथ्वीराज चौहान को भी घायल कर दिया।बाबा गोरखनाथ के कहने पर उन्होंने पृथ्वीराज को जीवन दान दे दिया था। इस युद्ध मे हुई विजय स्वरूप आल्हा ने माँ शारदा के चरणों मे सुरंग गाढ़ दी थी और युद्ध से वैराग्य ले लिया। आल्हा द्वारा यहां बैराग्य लिया गया था इसलिए तभी से इस जगह का नाम बैरागढ़ पड़ गया।

माँ शारदा पीठ के आँचल में ही वीर आल्हा की जयंती वर्षो से 25 मई को वर्षो से मनाई जाती है ताकि माँ शारदा के इस वीर पुत्र को निरंतर याद किया जाए। भले ही आधुनिक विज्ञान इस बात पर विश्वास न करे कि 900 साल बाद भी कोई व्यक्ति जिंदा हो सकता है परंतु हजारो लोगो की आस्था के सामने विज्ञान के तर्क हल्के दिखाई पड़ते है।आज भी लोगो मे प्रचलित आल्हा ऊदल की कथाएँ उनके जिंदा होने का प्रमाण ही है।

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